
दिल्ली में पहली बार क्लाउड सीडिंग का ट्रायल: कृत्रिम बारिश से प्रदूषण धोने की कोशिश, जानिए कैसे काम करती है ये तकनीक
दिल्ली की हवा एक बार फिर ज़हर से भर चुकी है। अक्टूबर के आख़िरी हफ्ते में प्रदूषण ने फिर से खतरनाक स्तर पार कर लिया है। एयर क्वालिटी इंडेक्स (AQI) 300 से ऊपर पहुंच गया है, जो “बहुत खराब” श्रेणी में आता है। लोगों की आंखों में जलन, सांस लेने में तकलीफ़ और धुंध की चादर—ऐसा माहौल फिर से राजधानी पर छा गया है। इसी बीच दिल्ली सरकार ने प्रदूषण से निपटने के लिए एक अनोखा कदम उठाया — क्लाउड सीडिंग (Cloud Seeding) का ट्रायल।
28 अक्टूबर 2025 को दोपहर करीब 12:30 से 1:00 बजे के बीच विमान से बादलों में “AgI (सिल्वर आयोडाइड)” नामक केमिकल छोड़ा गया। यह प्रयोग दिल्ली-NCR के कुछ चुनिंदा इलाकों में किया गया। अगर ट्रायल सफल रहा, तो आने वाले समय में इसे नियमित रूप से किया जाएगा ताकि कृत्रिम बारिश से हवा में मौजूद जहरीले कणों को धोया जा सके।
लेकिन सवाल उठता है — जब बादलों में केमिकल डाल दिया गया, तो बारिश तुरंत क्यों नहीं होती?
वैज्ञानिक बताते हैं कि सीडिंग के बाद पानी की बूंदें या बर्फ के क्रिस्टल बनने में 15 मिनट से लेकर 4 घंटे तक का समय लगता है। चलिए, समझते हैं कि आखिर यह तकनीक काम कैसे करती है और इससे क्या उम्मीद की जा सकती है।
क्लाउड सीडिंग क्या है?
क्लाउड सीडिंग मौसम में बदलाव लाने की एक वैज्ञानिक तकनीक है, जिसकी शुरुआत करीब 80 साल पहले हुई थी। इसका मकसद है – ऐसे बादलों से कृत्रिम रूप से बारिश करवाना जिनमें पर्याप्त नमी तो होती है, लेकिन प्राकृतिक बारिश नहीं होती।
प्राकृतिक रूप से बारिश तब होती है जब हवा में मौजूद छोटे-छोटे कण (जैसे धूल, नमक या परागकण) पर जलवाष्प संघनित होकर पानी की बूंदें बनाता है। लेकिन अगर बादल में ये कण कम हों, तो वह बारिश नहीं कर पाता। ऐसे में वैज्ञानिक कृत्रिम कण यानी “सीड” डालते हैं — जो पानी की बूंदों को बनने में मदद करते हैं।
दिल्ली में हुई सीडिंग सिल्वर आयोडाइड (AgI) से की गई, जो बर्फ के क्रिस्टल बनाने में बेहद असरदार होता है। यह तरीका ठंडे बादलों पर इस्तेमाल होता है, जिन्हें ग्लेशियोजेनिक सीडिंग कहा जाता है। गर्म बादलों के लिए “हाइग्रोस्कोपिक सीडिंग” की जाती है, जिसमें नमक जैसे पदार्थ उपयोग होते हैं।
वैज्ञानिक आंकड़े बताते हैं: दुनिया के कई देशों में क्लाउड सीडिंग से 5% से 15% तक बारिश बढ़ाई जा सकती है। उदाहरण के लिए, अमेरिका के रेनो इलाके में क्लाउड सीडिंग से करीब 10% ज्यादा बारिश दर्ज की गई।
दिल्ली में क्यों ज़रूरी थी यह कोशिश?
दिल्ली लंबे समय से दुनिया के सबसे प्रदूषित शहरों में शुमार है। सर्दियों में पराली जलाने, वाहन उत्सर्जन, निर्माण कार्यों और ठंडी हवाओं की वजह से हवा में PM2.5 और PM10 कण खतरनाक स्तर तक बढ़ जाते हैं। हवा में नमी कम होने से ये कण नीचे ही रहते हैं, जिससे स्मॉग (धुंध) बनता है।
ऐसे में कृत्रिम बारिश प्रदूषण को “धो” सकती है। बारिश के पानी की बूंदें इन कणों को पकड़कर जमीन पर गिरा देती हैं, जिससे हवा साफ होती है। यही वजह है कि दिल्ली सरकार ने क्लाउड सीडिंग को प्रयोग के तौर पर आज़माया।
पर्यावरण मंत्री मनजिंदर सिंह सिरसा ने बताया कि इस ट्रायल के तहत एक विमान ने लगभग 10 से 15 किलो AgI बादलों में छोड़ा। एक ट्रायल की लागत करीब 64 लाख रुपये है और ऐसे 5 ट्रायल किए जाने की योजना है।
क्लाउड सीडिंग की पूरी प्रक्रिया – 6 स्टेप में समझिए
- बादल का चयन (Cloud Selection):
सबसे पहले रडार और सैटेलाइट से ऐसे बादल चुने जाते हैं जिनमें सुपरकूल्ड वॉटर (0°C से नीचे का पानी) मौजूद हो। आमतौर पर ये बादल 2-5 किलोमीटर की ऊंचाई पर होते हैं। सिल्वर आयोडाइड -5°C से -20°C के तापमान पर सबसे अच्छा काम करता है। - बीज डालना (Seeding):
इसके बाद विमान इन बादलों में उड़ान भरता है और AgI के बारीक कण (0.1-1 माइक्रॉन) बादलों में छोड़ता है। ये कण बर्फ के “बीज” की तरह काम करते हैं। - क्रिस्टल बनना (Nucleation):
AgI के कण पानी की बूंदों से जुड़कर छोटे बर्फ के क्रिस्टल बनाते हैं। एक AgI कण से 100 से 1000 बर्फ के क्रिस्टल तक बन सकते हैं। - वृद्धि और संघनन (Growth & Coalescence):
ये बर्फ के क्रिस्टल हवा से नमी सोखते हैं और बड़े होते जाते हैं। ठंडे बादलों में ये नीचे आते-आते पिघलकर बारिश बन जाते हैं। - गिरावट (Precipitation):
बड़े क्रिस्टल या बूंदें भारी होकर गिरने लगती हैं। हवा की दिशा और गति के अनुसार उन्हें जमीन तक पहुंचने में 10-30 मिनट लगते हैं। - बारिश का फैलाव (Rain Distribution):
कृत्रिम बारिश आमतौर पर 10 से 50 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में होती है। दिल्ली ट्रायल में 5-10 मिमी बारिश का लक्ष्य रखा गया है।
क्यों देर लगती है बारिश में?
सीडिंग के बाद बारिश तुरंत नहीं होती क्योंकि यह पूरी प्रक्रिया समय लेती है। पहले बर्फ के क्रिस्टल बनने, फिर उनके बढ़ने और फिर जमीन तक गिरने में 15 मिनट से लेकर 4 घंटे तक का वक्त लग सकता है। बादलों की घनता, तापमान और हवा की दिशा इस प्रक्रिया की गति तय करते हैं।
दुनिया के कई देशों में हो चुका है प्रयोग
क्लाउड सीडिंग अमेरिका, चीन, इज़रायल, यूएई और ऑस्ट्रेलिया जैसे देशों में पहले से किया जा रहा है। दुबई ने तो रेगिस्तान में कृत्रिम बारिश लाने के लिए इसे बड़े पैमाने पर अपनाया है। चीन ने बीजिंग ओलंपिक (2008) के दौरान इसका इस्तेमाल किया था ताकि खेलों से पहले प्रदूषण और धूल कम की जा सके।
