विजयादशमी का असली नाम ‘अशोक विजयादशमी’ है — जानिए वो सच्चा इतिहास जिसे सदियों से छुपाया गया

अशोक विजयादशमी : वह सच्चा पर्व जिसे इतिहास ने छिपा दिया

क्या आप जानते हैं जिस पर्व को हम सदियों से “दशहरा” या “विजयादशमी” के रूप में मनाते आ रहे हैं, उसका असली नाम “अशोक विजयादशमी” था?
यह सुनकर आपको हैरानी होगी, कुछ लोग इसे मज़ाक भी समझ सकते हैं — लेकिन यह कोई कल्पना नहीं, बल्कि भारत के इतिहास का वह अध्याय है जिसे बहुत चालाकी से मिटा दिया गया।

हमें बचपन से बताया गया कि यह दिन “राम की रावण पर विजय” का प्रतीक है — यानी बुराई पर अच्छाई की जीत का दिन। लेकिन क्या हो अगर यह पूरी कहानी ही एक बनावटी कथा हो?
एक ऐसी कथा जो असली ऐतिहासिक घटना — सम्राट अशोक की आत्म-क्रांति और अहिंसा के मार्ग पर परिवर्तन — को छुपाने के लिए रची गई हो।


सम्राट अशोक और कaling युद्ध की भयावह कहानी

करीब 2300 साल पहले, भारत की धरती पर मौर्य वंश का शासन था। इसी वंश में जन्म हुआ था उस सम्राट का, जो इतिहास के सबसे महान शासकों में से एक बना — सम्राट अशोक महान।
लेकिन अपने जीवन के शुरुआती दिनों में अशोक “महान” नहीं, बल्कि “चंड अशोक” यानी क्रूर और निर्दयी अशोक के नाम से जाने जाते थे। उनका सपना था – पूरे भारत को एक साम्राज्य के अधीन लाना।

इस सपने को पूरा करने के लिए उन्होंने अपने जीवन का सबसे भयानक युद्ध लड़ा – कaling युद्ध।
कaling, जो आज का ओडिशा है, उस समय एक स्वतंत्र और समृद्ध गणराज्य था। अशोक ने अपने विशाल सेना के साथ उस पर चढ़ाई कर दी। यह कोई साधारण युद्ध नहीं था — यह एक महासंग्राम था।

कहा जाता है, इस युद्ध में 1 लाख से अधिक सैनिक मारे गए, और 1.5 लाख लोग बंदी बना लिए गए।
कaling की धरती लाशों से पट गई थी।
हर ओर बस चीखें, मातम और विनाश का दृश्य था —
माएं अपने बेटे खो चुकी थीं, पत्नियां विधवा बन चुकी थीं, बच्चे अनाथ हो गए थे।
पूरा कaling एक विशाल श्मशान भूमि में बदल गया था।


वह क्षण जिसने अशोक को “चंड” से “धम्म” बना दिया

जब युद्ध के बाद अशोक विजयी होकर रणभूमि का निरीक्षण करने निकले, तो उन्होंने देखा —
जहां तक नज़र जाती थी, कटे हुए सिर, टूटी तलवारें और खून से लथपथ शव पड़े थे।
वह दृश्य इतना भयावह था कि सम्राट का हृदय भीतर तक कांप गया।
वह विजय, जिस पर गर्व होना चाहिए था, अब पछतावे का बोझ बन गई थी।
उनकी तलवार अब गौरव का प्रतीक नहीं रही — वह उन्हें पिघले हुए लोहा जैसी भारी लग रही थी।

और वहीं, उसी रक्तरंजित भूमि पर, सम्राट अशोक ने अपने जीवन का सबसे बड़ा निर्णय लिया —
उन्होंने शपथ ली कि आज के बाद वे कभी हथियार नहीं उठाएंगे।
उन्होंने हिंसा को त्याग कर शांति, करुणा और प्रेम का मार्ग अपनाने का संकल्प लिया।

यही संकल्प उन्हें भगवान बुद्ध के सिद्धांतों की ओर ले गया।
कaling युद्ध की समाप्ति के ठीक दसवें दिन, यानी “दशमी” के दिन, सम्राट अशोक ने पाटलिपुत्र (आज का पटना) में एक विशाल समारोह आयोजित किया।
उस दिन उन्होंने औपचारिक रूप से बौद्ध धर्म की दीक्षा ली।
उन्होंने अपने शस्त्र त्यागे और “धर्म विजय” की घोषणा की।


यही था असली ‘अशोक विजयादशमी’ — करुणा की जीत का पर्व

यह दिन केवल एक राजा के धर्म परिवर्तन का नहीं था,
बल्कि पूरे साम्राज्य की नीति बदलने का दिन था।
उस दिन मौर्य साम्राज्य में एक नई परंपरा की शुरुआत हुई —
लोग इस दिन दान, करुणा, मैत्री और शांति का उत्सव मनाने लगे।
कहीं हिंसा नहीं होती थी, न शस्त्र पूजा, न युद्ध की तैयारी —
बल्कि गरीबों की मदद, ज्ञान का प्रसार और मानवता का सम्मान किया जाता था।

यह था असली “अशोक विजयादशमी”,
जो “बाहरी शत्रु पर नहीं, बल्कि अपने भीतर के क्रोध, घृणा और हिंसा पर विजय” का प्रतीक था।


लेकिन इतिहास पलट दिया गया…

अशोक के बाद मौर्य वंश धीरे-धीरे कमजोर होता गया।
उनके उत्तराधिकारी बौद्ध सिद्धांतों पर चलते रहे —
जहां जाति-पाति, भेदभाव और हिंसा के लिए कोई स्थान नहीं था।
लेकिन जैसे-जैसे बौद्ध धर्म फैला,
वैसे-वैसे उन शक्तियों को खतरा महसूस हुआ,
जो समाज को भेदभाव और धार्मिक वर्चस्व पर टिकाए रखना चाहती थीं।

धीरे-धीरे अशोक विजयादशमी को भुला दिया गया,
और उसकी जगह “रावण दहन” और “शस्त्र पूजा” वाला दशहरा सामने लाया गया।
एक ऐसा पर्व जो हिंसा, युद्ध और दहन का प्रतीक बन गया —
जबकि असली पर्व तो अहिंसा, करुणा और आत्मविजय का था।


अब समय है सच्चाई पहचानने का

अशोक विजयादशमी हमें याद दिलाती है कि
सच्ची विजय तलवार से नहीं, दया और प्रेम से होती है।
सम्राट अशोक ने यह साबित किया कि
जो दूसरों पर नहीं, बल्कि अपने भीतर के अंधकार पर जीतता है, वही सच्चा विजेता होता है।

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